जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
निर्वासित नारी की कविता
इस बार जाड़े में माँ क्या कर रही है?
क्या कर रही है माँ?
क्या कुछ कर रही है माँ, में यहाँ महसूस कर रही हूँ।
आँखें मूंदते ही मुझे दिखाई देने लगती है।
आ रहा है जाड़ा, समय हो गया है आँगन में चटाई विछाकर रजाई को
धूप दिखाने का
माँ मेरी रजाई और कम्बल डाल रही हैं धूप में, उन्हें तहा रही हैं,
गावतकिए में भर रही हैं रूई, धुनक रहे हैं आँगन में रूईधुनिए।
जाड़ा आते ही शुरू हो जाती है माँ की ऐसी व्यस्तताभरी भाग-दौड़।
इस बार भी जाड़े में धूप दिखाकर
रजाई माँ ने रख दी है बिस्तर पर करीने से।
इस बार के जाड़े में भी अचार का मर्तबान रखा है धूप में,
इस बार के जाड़े में भी भापापीठा बनाने की हँडिया और
लत्तों का इंतजाम
कर रही हैं माँ!
यह सब किसके लिए?
कौन है घर में जो जाड़े-भर रजाई में सिकुड़कर, मन ही मन
खूबसूरत चाँदनी में, अरण्य में, लकड़ियाँ बीनकर तापती है आग,
मेरे सिवा।
और कौन है घर में जिसके लिए रह-रहकर गर्मागर्म चाय, तले मुरमुरे,
दोपहर होते ही आम और लिसोड़े का आचार-
भोर का खजूर रस और पीठापूली*-किसके लिए?
इस बार के जाड़े में स्कैंडेनेविया में, डूबी हुई हूँ बर्फ और अँधेरे में
पता है मैं लौट नहीं सकती, माँ जानती हैं मेरे न आने की बात,
धूप-भरे आँगन और कढ़े हुए कांथा के नेप्थलीन की गंध पर
आकर सोएगी पड़ोस की बिल्ली
चावल से बनी मिठाई।
यह जानते हुए भी माँ क्यों धूप दिखाती हैं मेरे कांथा-कपड़े, रजाई,
कपास की रूई के तकिए को।
सब जानते हुए भी माँ क्यों रोती हैं फोन पर फूट-फूटकर, जब मैं
दुनिया के आखिरी छोर से देती हूँ सुसंवाद- 'मैं ठीक हूँ।'
अबूझ है मेरी माँ अँगुलियों पर गिनती हैं दिन, बरामदे में खड़ी
करती हैं प्रतीक्षा।
अचानक पूछ बैठती हैं, 'कब आ रही हो तुम? तुम तो यहाँ आकर
सोओगी अपने विस्तर पर, कहानी सुनते हुए नंदी के घर के भूत की
और वन के लकड़हारे की, मेढ़क राजकुमार की और...
माँ क्या अगले जाड़े में भी मेरे लिए धूप दिखाएँगी
गद्दे, रजाई, अचार के मतवान को।
और दरवाजे की साँकल बजते ही हँसिए से काटती मछली
को छोड़कर वैसी ही
दौड़ेंगी यह देखने कहीं मैं तो नहीं!
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